Saturday, August 20, 2016

हमें पता भी नहीं चलेगा, लेकिन आज सवेरा होते ही लाखों 'सिंधु' लड़ने को तैयार

कल्पेश याग्निक (संपादक, भास्कर ग्रुप)
कुछ पलहोते ही परिवर्तन के लिए हैं। कुछ स्पर्धाएं होती ही हैं साहस जगाने के लिए। 
कोई होता ही इसलिए है कि कोई, उसे होते हुए देखकर, वैसा ही होना चाहे। 
शुक्रवार, 19 अगस्त 2016 की तिथि भारतीय संदर्भों में सिंधु साहस की तिथि है। समूचे देश में उत्साह का
चरम वातावरण बन गया। मानो हर मोहल्ला ही गोपीचंद एकेडमी हो। 
धड़कनंे थामे, संभवत: -बल्कि निश्चित ही- हम करोड़ों भारतीय नागरिकों ने पहली बार इतने ध्यान से बैडमिंटन खेलते हुए किसी को देखा। गोल्ड फॉर सिंधु या कि इसी तरह के कई वाक्यों को गढ़ते हुए हैशटैग एक दिन पहले से चलने आरम्भ हुए। और सुपर सिंधु और 'सिंधु पर गर्व' करते हुए, यकायक ही देश तो आगे बढ़ गया। किन्तु... 
...किन्तु कोने-कोने में बैठी, छोटी-छोटी लड़कियां अचानक से खड़ी हो गईं। 
सिंधु अकेली नहीं है। 
सिंधु, केवल पुसरला वैंकट सिंधु नहीं है। 
आज वह एक शक्तिशाली प्रेरणा बनकर उभर गई है। नवयुवतियों के लिए। 
कि बढ़ो - और खेलो। 
कि उठो - और लड़ो। 
और यह मत देखो कि जीत है या हार है। सफलता है या विफलता है। तमगे हंै। नहीं हैं। 
बस पहली बार की हिचक तोड़ो। 
कुछ भी नया करने के लिए, कभी कभी तो पहली बार होगा ही। सिंधु का रियो ओलिम्पिक फाइनल उतना ही सिखाता है - जितना उनकी जीवन भर की तैयारी। विश्व के सर्वोच्च खिलाड़ी से वह लड़ी। विश्व के सर्वोच्च खेल मैदान में। उनका सहज और संयत रहना उतनी ही शिक्षा देता है - जितना कि उनका असहज हो जाना। संयम खो देना। क्योंकि इन दो असावधानियों से कितना ख़तरा बढ़ सकता है - यह प्रत्यक्ष प्रकट होते दिखा। 
नई पीढ़ी की लड़कियां बहुत सीख रही हैं। उन्होंने देखा ही होगा कि किस तरह, कहां आक्रामक होना है। और जहां आक्रमण करना है, वहां शांत रहने से सीधे नुकसान है। 
विजेता किसी के मोहताज नहीं होते। वे आत्म-निर्भर ही होते हैं। 
देश के छोटे-छोटे कस्बों में, धीरे-धीरे बढ़ रहीं करोड़ों बच्चियां कल तक अपना लक्ष्य नहीं जानती थीं। 
आज केवल वे जान गई हैं कि उन्हें करना क्या है -बल्कि वे उस बंधन से मुक्त होने की तैयारी में भी हैं जो उन्हें वैसा करने से रोकेगा। सेना में जो कठोर अनुशासन है- वैसा जीवन जीया है सिंधु ने। 
जो बच्चों के लिए बचपन की तरह सुलभ है -उसे दूर रख बड़ी हुई है साक्षी मलिक। भला लड़की को कोई पहलवान बनने देगा? किन्तु बनी। और अपनी बच्ची को सर्कस के करतब जैसा कौतुक करने देने के लिए कौन पैसे जुटाएगा- वह भी चंदा करके! दीपा कर्माकर का यही संघर्ष रहा। 
तो वो जो स्कूल की अंतिम कक्षाओं में बैठी हैं - वे लड़कियां अब साफ समझ चुकी हैं - या कि समझ रही हैं - कि अभ्यास करो। हर वो काम -जिसमें मन लगे- करो। 
बार-बार करो। 
चलो। दौड़ो। गिरो। उठो। दौड़ो। 
बस, उन्हें पहचानने वाला चाहिए। 
पहली पहचान तो माता-पिता ने कर ली। कि बच्ची को यह पसंद है। यह इसमें तेज़ है। इसका मन इसमंे लगता है। और शनै: शनै: एक बात होने लगती है कि बच्ची यह कर सकती है। 
दूसरी जानकारी स्कूल निकाल लेता है। कि क्लास टीचर को लगता है लड़की यह अच्छा करती है। बाकी शिक्षकों में भी कुछ ऐसे होते हैं जो बच्चों की प्रतिभाएं पहचान लेते हैं। 
तीसरी कसौटी होती है बच्चियों की सहेलियां। बड़ी होने तक। वे सब-कुछ जान पाती हैं। अपनी दोस्त के बारे में उनकी परख, कई बार माता-पिता, शिक्षकों से भी अधिक पैनी होती है। 
ओलिम्पिक में जितनी भी युवतियां आज भाग ले रही हैं -या कि पहले ले चुकी हैं- सभी की सहेलियांे ने उन्हें बहुत प्रोत्साहित किया था। 
चौथे हैं आसपास रहने वाले। वे उन गुणों को बाहर से आसानी से देख पाते हैं - जो भीतर या साथ रहकर नहीं पता चलते। 
पांचवें हैं रिश्तेदार। या कि परिवार के वे सदस्य जो बाहर रहते हैं। हमारी बच्चियों की कई बातें वे परिवार की जड़ों से जोड़कर देख लेते हैं। उससे किी गुण या क्षमता को आगे बढ़ाने का आधार मिलता है। 
छठे वो हैं जो छुपी प्रतिभा को पहचाने। हिडन फैकल्टीज़ को। कभी वो कोच, कभी ट्रेनर, कभी सहकर्मी होते हैं। कभी बॉस या लीडर। 
सातवें और सबसे महत्वपूर्ण हैं - बच्चियों के प्रतिस्पर्धी। बड़े होकर उनमें से कई विरोधी बन जाएंगे। किन्तु छोटी-सी उम्र से जो लड़कियां आपस में हर बात पर मुकाबला करती हैं - वो एक-दूजे को भीतर तक समझने लगती हैं। 
और यही समझ स्पर्धा को जीतने का उनका कारण बनती है। मुकाबला, हमें जिंदा रखता है। कैसे पता चला कि ‌विश्व का सबसे तेज़ दौड़ने वाला कौन है? 
टाइमिंग से। टाइम से। स्कोर से। रिज़ल्ट से। रेकॉर्ड से। 
जी, नहीं। चूंकि अगल-बगल में वो जो अन्य दौड़ रहे थे - वे पीछे रह गए। इससे पता चला। केवल अन्य को पीछे छूटते देख ही संसार तय करता है कि सर्वश्रेष्ठ कौन है! 
आज भारतीय लड़कियां, प्रतिस्पर्धी व्यवस्था में पारंगत होने को तत्पर हैं। 
एक परिवर्तन तो दैनंदिन जीवन में यूं ही दिख रहा है। 
कि हवाई अड्‌डों पर, रेलवे स्टेशनों पर - अब बड़े और भारी सामान स्कूल और कॉलेज की लड़कियां बड़ी तेज़ी से, बड़े आराम से उठाने लगी हैं। 
अपना तो हमेशा। अापका भी। जबकि आप बड़े हैं। अधिक मजबूत हैं। और घर के पुरुष हैं! 
इसी ग़लत धारणा को तोड़ने के लिए लड़कियां इतना वज़न उठा रही हैं। 
हां, ऐसा तो वो कह रही हैं, ही हम वैसा सोच रहे हैं। 
किन्तु हमने तो हर परिवर्तन को अनदेखा किया है/कर रखा है। आज जितनी बच्चियां कठोर वर्कआउट करने जिम जा रही हैं - उतनी तो हिन्दुस्तान के इतिहास में कभी नहीं गईं। 
हमने कितना प्रोत्साहन दिया? 
आज जितनी लड़कियां उन्हें क्या पढ़ना है, कहां पढ़ना है -ख़ुद तय कर रहीं हैं- उतना पहले कभी नहीं हुआ। 
आज जितनी लड़कियां पढ़ाई और नौकरी के लिए घर-शहर छोड़कर बाहर निकल रही हैं - कभी नहीं निकलीं। शादी किससे और कब करेंगी - बहुत ईमानदारी और खुलेपन और दृढ़ता के साथ स्वयं तय कर, घर पर बता रही हैं। हम साथ कितना दे पा रहे हैं - यह हमारी सोच पर निर्भर है। किन्तु लड़कियां लड़ रही हैं। एक सिंधु, एक साक्षी, एक ओलिम्पिक सबकुछ उलट कर रख सकता है। 
हमलड़कियों को उनकी इच्छानुसार आगे बढ़ना, लड़कर चढ़ना और उनकी मर्जी के अनुसार प्रसन्न रहना ही सिखाएं, असंभव है। किन्तु सिखाना ही होगा। 
क्योंकिसिंधु सभ्यता का साम्राज्य युवा महिलाओं की प्रेरणा से ही फला-फूला है। सिंधु सेना, इतनी छोटी होकर भी, इतने शौर्य से इसीलिए लड़ पाती थी कि युवतियां उन्हें विजय के लिए भेजती थीं। 
आज, सवेरा होते ही, लाखों लड़कियां अपनी-अपनी लड़ाई लड़ने के लिए तत्पर होंगी। इसी विश्वास के साथ, एक भारतीय पिता का उन बच्चियों को प्रणाम। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
For getting Job-alerts and Education News, join our Facebook Group “EMPLOYMENT BULLETIN” by clicking HERE. Please like our Facebook Page HARSAMACHAR for other important updates from each and every field.