Thursday, August 18, 2016

खर्च का लक्ष्य ओलिंपिक हो तभी मिलेंगे मैडल: हर चौथे साल दुनिया में हो रही फजीहत पर चेतन भगत के विचार

चेतन भगत (अंग्रेजी उपन्यासकार)

हर चार साल में भारत तब अपमानजनक स्थिति से गुजरता है, जब सवा अरब से ज्यादा की आबादी वाला यह राष्ट्र ओलिंपिक में मेडल जीतने के लिए संघर्षरत दिखाई देता है। कुछ लोग सोशल मीडिया पर खिलाड़ियों पर भड़ास निकालकर उनके साथ अन्याय करते हैं। कुछ आत्मतुष्ट लोग कहते हैं कि हमें खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करना चाहिए। चलो कम से कम हमने ओलिंपिक में भाग तो लिया। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। यही महत्वपूर्ण है। इन बातों से मेडल जीतने में कोई मदद नहीं मिलेगी। ऐसे में यदि भारत को ओलिंपिक में दर्जनभर स्वर्ण पदक सहित कुल तीन दर्जन पदक (हां, यह संभव है!) जीतने हो तो क्या करना होगा? 
आइए, पहले उन आम कारणों पर नज़र डाली जाए, जो हमारे कमजोर प्रदर्शन पर दिए जाते हैं (और कैसे वे सब गलत हैं)। 
  1. हमारे पास खेलों के लिए पैसा नहीं है (हमें प्रति व्यक्ति के हिसाब से ज्यादा खर्च करने की जरूरत नहीं है)
  2. हमारे भीतर अच्छे जीन्स नहीं हैं (भारतीयों के पास बहुत बड़ा, विविधतापूर्ण और व्यापक जीन पूल है)
  3. पालक बच्चों को खेलने के लिए प्रोत्साहित नहीं करते, क्योंकि उसमें कोई भविष्य नहीं है (आंशिक रूप से सही, लेकिन यही स्थिति तो विदेशों में है। जैसे रजत पदक वाले रोवर्स का दुनिया में कहीं भी शानदार भविष्य नहीं होता।)
वास्तव में ओलिंपिक में हमारे मात खाने के तीन प्रमुख कारण हैं। 
  • एक, हम अोलिंपिक खेलों की परवाह ही नहीं करते (सिवाय तब जब ओलिंपिक सिर पर जाते हैं।)
  • दो, हम समाज में एक्सीलेंस को ज्यादा महत्व नहीं देते। जुगाड़ और औसत दर्जे की प्रतिभा से काम चल जाता है। इससे हमें ओलिंपिक मेडल नहीं मिलते।
  • तीन, हम अोलिंपिक में मेडल हासिल करने के लिए पर्याप्त खर्च नहीं करते या सही दिशा में नहीं करते। पहले दो कारणों का संबंध तो समाजगत मूल्यों से है। वे समय के साथ धीरे-धीरे बदलेंगे। यहां हमारा फोकस तीसरे कारण, खर्च पर है। हमें प्रतिस्पर्द्धात्मक खेलों पर खर्च करने में और खेलों पर आमतौर पर खर्च करने में फर्क समझना होगा। 
खेल सिर्फ प्रतियोगिता का ही विषय नहीं हैं, उनका संबंध मनोरंजन व्यायाम से भी है, जिसका अपना महत्व है। जैसे हमारे बाग-बगीचों में जॉगिंग ट्रैक होने चाहिए। इनसे चाहे विश्वस्तरीय एथलीट पैदा हो, लेकिन उस इलाके के लोग अधिक चुस्त-दुरुस्त होंगे। दूसरी तरफ यह भी सही है कि विश्व मंच पर मेडल जीतने लायक एथलीट तैयार करने के लिए प्रशिक्षण पर बहुत खर्च करना पड़ता है। हमें क्या करना चाहिए? इसका कोई आसान उत्तर नहीं है। आपको दोनों का कुछ-कुछ चाहिए। हालांकि, अभी तो वक्त की मांग है इस अपमानजनक स्थिति का अंत। यह भारत को विश्व के मानचित्र पर रख देगा। इससे सैकड़ों-लाखों युवाओं को प्रेरणा मिलेगी। हमारी राष्ट्रीय पहचान बनेगी। राजनीतिक स्तर पर भी देखें तो नरेंद्र मोदी जैसे नेता भारत को गौरवशाली बनाने के वादे पर ही अपना वजूद बनाते हैं। सिर्फ 2 करोड़ की आबादी वाला ऑस्ट्रेलिया हर ओलिंपिक में औसतन 50 मेडल जीतता है। ऑस्ट्रेलिया सरकार खेलों पर 700 करोड़ रुपए खर्च करती है, जिसका 80 फीसदी यानी 560 करोड़ ओलिंपिक खेलों की तैयारी पर खर्च होता है। भारत ने पिछले दो दशकों में हर ओलिंपिक में दो मेडल का औसत रखा है। युवा खेल मंत्रालय का खेल बजट करीब 900 करोड़ रुपए हैं। इसमें दो-तिहाई तो (ओलिंपिक मेडल के लिए नहीं बने) स्थानीय स्तर के खेल आयोजनों, पुरस्कार बांटने, स्टेडियमों का स्तर बढ़ाने और पूर्वोत्तर को ऊपर उठाने जैसी योजनाओं पर खर्च हो जाता है। करीब 300 रुपए ही खेलों का स्तर वास्तव में बढ़ाने पर खर्च होते हैं। यह साफ नहीं है कि इसमें से भी कितना पैसा ओलिंपिक स्तर के प्रशिक्षण पर खर्च होता है। जैसे पूरे देश में प्रतिभा खोज के लिए सिर्फ 5 करोड़ रुपए हैं। 20 से अधिक अोलिंपिक खेलों के लिए ज्यादा से ज्यादा 300 करोड़ रुपए खर्च होते हैं यानी प्रत्येक खेल पर करीब 15 करोड़ रुपए। तैराकी जैसे अोलिंपिक खेल का राष्ट्रीय बजट है 15 करोड़ रुपए, जिसमें आप दर्जनों मेडल जीत सकते हैं। यह राशि तो शायद खेल से जुड़े बाबुओं के वेतन पर ही खर्च हो जाती होगी। इस तरह नए खिलािड़यों का पता लगाने और प्रशिक्षण देने के लिए राशि बहुत कम है। 
दूसरी तरफ ऑस्ट्रेलिया की राशि चाहे कम हो, लेकिन वह कुछ ही खेलों पर खर्च करता है, भ्रष्टाचार कम होता है और लक्ष्य कदम स्पष्ट- अोलिंपिक। भारत भी ऐसा ही कर सकता है। एक तो हमें अलग बजट चाहिए- जैसे भारतीय ओलिंपिक फंड। यह सिर्फ अोलिंपिक के लिए प्रतिभा की खोज और प्रशिक्षण (खेलों को प्रोत्साहन देने के लिए आम बजट अलग होगा) के लिए होगा। यह बजट कम से कम 10,000 करोड़ प्रतिवर्ष होना चाहिए। यह बहुत बड़ी राशि दिखती है, लेकिन यह सिर्फ प्रतिव्यक्ति 8 रुपए हैं। इसकी तुलना में फायदे बहुत ज्यादा है। 
यह कुछ-कुछ नंदन निलेकणी के आधार जैसा सेटअट होगा, जिसमें ओलिंपिक फंड को बाहर से आए पेशेवर मैनेज करेंगे। अपना काम ईमानदारी दक्षता से करेंगे। 10,000 करोड़ तीन हिस्सों में खर्च होंगे। एक, 5000 हजार एलीट स्पोर्ट्स पर्सन की पहचान और उन्हें बनाए रखने पर खर्च (इन्हें एलीट 5000 कहेंगे)। ये खर्च प्राथमिक रूप से ज्यादा मेडल वाले (तैराकी, साइक्लिंग) खेलों पर खर्च होंगे। दो, एलिट 5000 की स्कॉलरशिप और शिक्षा पर भुगतान ताकि उन्हें पैसे या बाद में नौकरी पाने की चिंता करनी पड़े। तीन, एलीट 5000 के विश्वस्तरीय प्रशिक्षण पर खर्च। जिनमें से मान लें कि 300 भारतीय ओलिंपिक दल का हिस्सा बनेंगे। यदि ऐसी व्यवस्था की गई तो निश्चित ही हम दर्जनभर स्वर्ण पदक तो जीत ही लेंगे। 
इस तरह मेडल सिर्फ कड़े मुकाबले की भावना, भावुक देशभक्ति, खिलाड़ियों को सोशल मीडिया पर प्रोत्साहन या व्यक्तिगत खेल सितारों को मीडिया स्टार बनाने से नहीं आते। इन चीजों से मदद मिलती है, लेकिन मेडल तो तब आएंगे जब हम ऊपर बताए तरीके से भारतीय ओलिंपिक फंड मैनेज करेंगे। अब मुझे बताइए कि क्या एक भारतीय के रूप में आप हर साल 8 रुपए देने को तैयार हैं ताकि हर ओलिंपिक में दर्जनभर गोल्ड मेडल जीतने का गर्व महसूस कर सकें? 
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)  

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com

साभार: भास्कर समाचार 
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