Sunday, January 22, 2017

लाइफ मैनेजमेंट: क्या आपने कभी असली दुनिया देखी है?

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
देर रात डॉ. मोहिंदर सिंह अरोरा का परिवार उनके लखनऊ स्थित आवास पर जमा था, जो 1 मार्च 2017 को 80 साल के होने वाले हैं लेकिन, अभी बीमार थे। वे सो रहे थे जबकि उनके बच्चे परिवार के अन्य सदस्य उनके लिए
प्रार्थना कर रहे थे। अचानक दरवाजे की घंटी बजी। पुत्र अमरजीत सिंह अरोरा रात के उस समय इस व्यवधान पर गुस्सा हो गए लेकिन, उन्हें अचरज नहीं हुआ, क्योंकि उनके पिता लखनऊ के सबसे लोकप्रिय लोगों में से हैं। यदि आप किसी भी रिक्शा वाले से कहें कि आपको 'ज्ञानीजी' से मिलना है, हां डॉ. अरोरा इसी नाम से मशहूर हैं, तो वह उनके घर सी-1151, राजाजीपुरम पर छोड़ देगा। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। हॉस्पिटेलिटी बिज़नेस चलाने वाले अमरजीत हमेशा यह देख विचलित हो जाते कि किसी रोगी को देखने की उनके पिता की फीस कभी 5 रुपए से ऊपर नहीं जाती। ज्यादा फीस लेना तो दूर जरूरतमंदों को तो वे पैसे और दवाइयां तक दे देते ताकि वे स्वास्थ्यवर्द्धक भोजन करके जल्दी सेहतमंद हो सकें। हालांकि, इन 53 वर्षों में फीस 10 पैसे से बढ़कर 5 रुपए तक पहुंची है। अपने पिताजी से चर्चा में वे हमेशा पूछते, 'मुझे बताइए पिताजी अपनी जिंदगी में आपने क्या कमाया?' ज्ञानीजी हमेशा जवाब में मुस्कुरा देते। 
ज्ञानीजी ने एक अनाथाश्रम 'बाल सहयोग' में वार्डन के काम से अपने कॅरिअर की शुरुआत की थी। वे तब इंदिया गांधी को रिपोर्ट करते थे, जिन्हें उनके पिता प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मार्गदर्शन में प्रशिक्षित किया जा रहा था। परिवार की पहुंच सीधे प्रधानमंत्री आवास तक थी, जबकि विभाजन के बाद वे पाकिस्तान से शरणार्थी के रूप में आए थे लेकिन, उनके परिवार ने इस ऊंचे संपर्क का कभी फायदा नहीं उठाया। ज्ञानीजी के पिता ने अपने बेटे के लिए सारे ऊंची तनख्वाह वाले जॉब की पेशकश ठुकरा दी और ड्राफ्टमैन के बतौर भारतीय रेल ज्वॉइन करने में उसकी मदद की। ज्ञानीजी पार्टटाइम पैशन के रूप में होमियोपैथी की प्रैक्टिस करते। लेकिन, जब उनकी मां को त्वचा की खतरनाक बीमारी एक्जिमा हुई 1967 में एलोपैथी से ज्यादा मदद नहीं मिली, उन्होंने होमियोपैथी से मां को दो साल में ठीक कर दिया। 
उन्होंने रेलवे से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली और आर्थिक रूप से गरीब तबके के वृहत्तर फायदे के लिए होमियोपैथ के रूप में प्रैक्टिस करने लगे। यही वजह है कि पूरा लखनऊ शहर उन्हें 'खुदा का बंदा' कहता है। इसीलिए दरवाजे की घंटी बजते ही अमरजीत विचलित हो गया कि जब उनके पिता खुद बीमार हैं तब भी कोई उन्हें तकलीफ देने गया। ये कोई मुस्लिम सज्जन थे, जो अमरजीत के कड़े विरोध के बावजूद ज्ञानीजी से मिलने पर जोर दे रहे थे। पहले तो उसने गुजारिश की कि वह सिर्फ ज्ञानीजी को देखेगा, उन्हें तकलीफ नहीं देगा पर अमरजीत टस से मस नहीं हुए। फिर तो वे किसी दादा की तरह सीधे डॉक्टर के बेडरूम में पहुंच गए। वहां वे खड़े हुए, फिर छत की ओर देखकर और दुआ करना शुरू किया 'हे खुदा, इस शख्स को कोई दुख मत दीजिए। कृपया उनका सारा दर्द मुझे दे दीजिए, क्योंकि तुम जानते हो वे किस तरह के शख्स हैं; दुनिया को और ज्ञानीजी चाहिए।' फिर वे कुछ देर और ज्ञानीजी के लिए प्रार्थना करते रहे और चुपचाप चले गए। अमरजीत और उनके परिवार के सदस्य तो स्तब्ध रह गए। अगली सुबह ज्ञानीजी उठे,अमरजीत को बुलाया और कहा, तुम हमेशा पूछते थे कि मैंने क्या कमाया, ठीक है न? तुमने पिछली रात देखा मैंने क्या कमाया है?' 
अमरजीत ने चुपचाप सिर हिलाया और कहा,'आप मेरे यहां क्यों नहीं जाते।' ज्ञानीजी ने जवाब दिया, 'आकर मेरी दुनिया में रहो। यह कहीं अधिक सुंदर है। यहां लोग दूसरों के लिए जीते हैं, तुम्हारी व्यावसायिक दुनिया की तरह चीजों के लिए नहीं जीते। फिर कभी मुझे अपने साथ आने के लिए कहना। तुम्हारा यहां हमेशा स्वागत है, क्योंकि असली दुनिया यही है।' अमरजीत वह बहस हारकर लौट आए लेकिन, उन्हें अच्छी तरह मालूम पड़ गया था कि असली दुनिया कैसी होनी चाहिए। 

फंडा यह है कि क्या आपने कभी असली दुनिया देखी है- यह उन लोगों की दुनिया है, जो दूसरे लोगों के लिए जीते हैं। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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