Tuesday, August 15, 2017

आधुनिक युग में 'स्वतंत्रता' शब्द ने ले लिए हैं नए अर्थ

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
स्टोरी 1: तेरह वर्षीय रंजन इस जगह पर तब आया था, जब वह मात्र दो वर्ष का था। उसके पिताजी उसके जन्म के कुछ दिन बाद अधिक शराब की लत के कारण गुजर गए थे, जबकि मां टीबी से तब चल बसीं जब वह सिर्फ दो
साल का था। चूंकि उसकी देखभाल करने वाला कोई निकट संबंधी नहीं था तो पड़ोसियों ने उसे इस जगह ला छोड़ा और फिर कभी नहीं लौटे। अभी वह कक्षा 6 में पढ़ रहा है। कुशी अब 8 साल की है और तब किसी राहगीर स्थानीय पुलिस को झाड़ियों में पड़ी मिली थी, जब वह एक दिन से ज्यादा की नहीं होगी। तब से वह भी यहीं है। तनु, नीरज और विष्णु- बहन भाई क्रमश: 15, 12 और 10 साल के हैं। वे 10वीं, पांचवीं तथा चौथी में पढ़ रहे हैं। आठ साल पहले उनके पिता की मौत हो गई और चूंकि मां उनका लालन-पालन करने में सक्षम नहीं थीं, छह साल पहले वे यहां गए और तब से उनकी पढ़ाई चल रही है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। ये बच्चे अलवर सहयोग सेवा संस्थान (एसएसएस) के सौ बच्चों में शामिल हैं, जो अपना जन्मदिन इस साल स्वतंत्रता दिवस के साथ आने वाली जन्माष्टमी को मनाएंगे। ऐसा इसलिए है,क्योंकि इनमें से किसी को भी अपना जन्मदिन पता नहीं है। एसएसएस के 40 सदस्य उन्हें बालगोपाल मानकर 2012 से यह उत्सव मना रहे हैं। अजीब बात है कि जाने किस वजह से इन बच्चों को मालूम नहीं था कि बर्थडे क्या बला होती है। रोज किसी किसी का जन्मदिन मनाने की बजाय वे सामूहिक रूप से जन्मदिन मनाते हैं, जिससे प्रायोजक भी जुड़ जाते हैं और उनके लिए टी-शर्ट या कुछ अन्य उपहार लाते हैं। 
SSS बहुत चुपचाप अपना काम कर रहा है और सरकार से कोई मदद नहीं लेता। वह केवल स्वैच्छिक दान ही लेता है, जो ज्यादातर गरम कपड़ों और पुराने वस्त्रों के रूप में ही होता है। 18 से 40 आयुवर्ग के एसएसएस के 40 सक्रिय सदस्य मुख्यत: अपने योगदान से संस्था चलाते हैं। वे शिद्‌दत से यह महसूस करते हैं कि उन बच्चों के जन्मदिन मनाना, जिन्हें अपने जन्मदिन का भी पता नहीं है, इन वंचित बच्चों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देने को नया अर्थ देता है। 
स्टोरी 2: जर्मनलोगों को अपने ब्रेटवर्ट और श्निटजल (मांसाहारी व्यंजन) पहुंच पसंद है लेकिन, चेन्नई स्थित जर्मन इंटरनेशनल स्कूल ने उक्त सॉसेजेस की जगह मसूर की दाल और ब्रोकोली की जगह सलामी को दे दी है। स्कूल ने इस साल से खुद को पूरी तरह शाकाहारी घोषित कर दिया है। अब विद्यार्थियों को नाश्ते, दोपहर रात के भोजन में शाकाहारी भोजन ही दिया जाता है। वे पर्यावरण पर मानव के असर को घटाना चाहते हैं और उन्होंने सोचा कि मांसाहार में कमी इसका सबसे सरल तरीका है। यह पर्यावरण को स्वतंत्रता देने का एक तरीका है। घास चरने वाली पालतू बकरी हो या लॉन पर पालतू चिकन फुदक रहा हो तो मांस खाना कठिन है। इसलिए उन्होंने अपने स्कूल के दरवाजे घायल त्याग दिए गए जानवरों के लिए खोल दिए हैं। जानवरों पर्यावरण को दी गई इस स्वतंत्रता को बच्चों ने बहुत पसंद किया है, साथ ही उन्हें यह अहसास भी हुआ कि शाकाहारी होना अधिक स्वास्थ्यवर्धक है। 
अब शत-प्रतिशत शाकाहारी हो चुका स्कूल अपना मॉक मीट (मीट जैसा लगने वाला शाकाहारी प्रोडक्ट) बनाता है, काजू से शाकाहारी चीज़ बनाता है और अपने ब्रैड पैदा करके यह सुनिश्चित करता है कि बढ़ते बच्चों की पोषण संबंधी जरूरतें पूरी हों। 
स्टोरी 3: एकक्राउड फंडिंग प्रोजेक्ट के लिए सिर्फ भारत के लोग संगठनों ने बल्कि अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और अन्य देशों के लोगों ने भी योगदान देकर 18 लाख रुपए इकट्‌ठा किए। यह पैसा मुंबई के अस्पताल में लिवर की बीमारी के अंतिम दौर से गुजर रही 17 वर्षीय आसरा शेख को पिछले शुक्रवार स्वतंत्रता दिलाने के लिए इकट्‌ठा किया गया। मुंबई के जिस वोकहार्ट हॉस्पिटल में ट्रांसप्लांट हुआ वहां के ट्रांसप्लांट स्पेशलिस्ट डॉ. अनुराग श्रीमाल ने यह क्राउड फंडिंग कैम्पेन तब शुरू किया, जब उन्हें लगा कि ट्रांसप्लांट के बिना यह बच्ची नहीं बच सकेगी। 
फंडा यह है कि चेहरे पर प्रसन्नता लाने, लोगों को खराब सेहत से उबारने और पर्यावरण पर मानव का असर कम करने जैसे काम 'स्वतंत्रता' को नया अर्थ दे रहे हैं। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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