Friday, August 18, 2017

जब जीवन का मकसद हो तो उम्र का कोई महत्व नहीं होता

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
स्टोरी 1: वे अभिमानी शतायू हैं। यानी 100 साल के हैं, जो चल सकते हैं, बात कर सकते हैं, अपने रोजमर्रा के काम बिना किसी मदद के पूरे करते हैं। कई बार तो दूसरों की भी मदद करते हैं। उनमें जोश किसी 10 साल के
बच्चे जैसा है। स्कूल जाने की तैयारी के उनके उत्साह को और कैसे समझाया जा सकता है। स्कूल में उन्हें पढ़ना, लिखना और गिनती करना सीखना है। ये गतिविधि शुरू हो रही है केरल के वायानद में अगले हफ्ते से, 100 घंटे की क्लास के माध्यम से। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। इनका नाम है मलायी। वे आदिवासी हैं जो कभी स्कूल नहीं गए और जब से अपने पैरों पर खड़े हुए खेतों में काम किया। लेकिन, उन्हें लगा कि जीवन में नई शुरुआत के लिए कभी देर नहीं होती। वायानद में साक्षरता दर सिर्फ 72 प्रतिशत के करीब है, जबकि राज्य में इसका औसत 93 प्रतिशत है। इस अंतर को पाटने के लिए सरकार ने यह पहल की है। सिर्फ मलायी ही नहीं है उनके जैसे 12 और 90 वर्ष से ऊपर के असाक्षर वृद्धों ने इसमें पंजीयन कराया है। नज़रों के कमजोर हो जाने उम्र संबंधी अन्य समस्याओं के बावजूद वे इसके लिए तैयार हैं। इस प्रोजेक्ट में आदिवासी क्षेत्रों के 8,023 लाेगों के शामिल होने का अनुमान है। वे पढ़ने के चश्में और किताबों का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। 

स्टोरी 2: कुंदापुर मैसूर से 342 किलोमीटर दूर है। तीर्थ नगर उडिपी से यह 32 किलाेमीटर की ही दूरी पर है लेकिन, सिर्फ इस वजह से शंकरनारायन्ना की अम्मा कैंटीन यहां 5 रुपए में इडली सांभर और 8 रुपए में बड़ा कप भरकर चाय सर्व नहीं करती। इस कैंटीन का किसी राजनीतिक पार्टी से कोई संबंध नहीं है और तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जे. जयललिता के अम्मा कैंटीन के दशकों पहले इसकी शुरुआत हुई थी। कुंदापुर में शंकरनारायन बेदराकट्‌टे कैंटीन सरकारी हाई स्कूल के पास है और 1956 में शुरू हुई थी। तब आसपास के करीब आठ गांवों के बीच यह एकमात्र स्कूल था और कुछ छात्रों को स्कूल पहुंचने के लिए 20-25 किलोमीटर चलना पड़ता था। तब यह कैंटीन इन बच्चों को रियायती दाम पर नाश्ता और भोजन कराने के लिए शुरू किया गया था। 
तब युवा माधवा किनि उर्फ किणी भट््ट और उनकी पत्नी सुलोचना उसी समय से यह कैंटीन चला रहे हैं। आज इस जोड़े की उम्र कमश: 94 और 81 साल है। चूंकि तब इन्हें यहां जमीन बहुत ही रियायती कीमत पर बच्चों की जरूरत पूरी करने के लिए दी गई थी, इसलिए आज 60 साल बाद भी उन्होंने वह भावना बनाए रखी है, जिसके तहत उन्हें यह जमीन दी गई थी। वे आज भी जरूरतमंदों के अनुसार कीमतें कम से कम रखने की कोशिश करते हैं। अप्रत्यक्ष रूप से छात्रों का पढ़ाई पर ध्यान लगाने का उद्‌देश्य भी इसमें शामिल है। इस बड़ी उम्र में भी वे किशोरों और युवाओं की मदद अपने तरीके से कर रहे हैं। 
नियमित रूप से यहां आने वाले गुणवत्ता पर पूरा भरोसा करते हैं, क्योंकि ये पिछले 60 साल से ताम्बे के बर्तन में लकड़ी की आग पर इसे बना रहे है। स्थानीय लोगों को यहां से खाना लेकर गरीबों को देते भी देखा जा सकता है जो तब एक आना नहीं चुका पाते थे और आज पांच रुपए। यही कारण है कि उन्हें अपनी कैंटीन बंद करने की इजाजत नहीं है, जबकि उम्र और गिरती सेहत के कारण आज वे हर रोज 200 से ज्यादा इडली नहीं बना पाते। हाल ही के दिनों तक वे 30 रुपए में पूरा भोजन मुहैया कराते थे, लेकिन किणी के बीमार पड़ने के बाद उन्होंने इसे बंद कर दिया लेकिन, नाश्ता जारी है। सुलोचना अभी भी सुबह चार बजे उठ जाती हैं, जैसा कि वह 1956 में करती थीं और भूखे लोगों के लिए नाश्ता तैयार करती हैं। 
फंडा यह है कि उम्र अपना काम करती रहती है, लेकिन, अगर आपके पास जीवन का कोई मकसद है तो इससे शायद ही कोई असर होगा। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
For getting Job-alerts and Education News, join our Facebook Group “EMPLOYMENT BULLETIN” by clicking HERE. Please like our Facebook Page HARSAMACHAR for other important updates from each and every field.