Friday, February 2, 2018

दो बातें मैनेजमेंट की: कलियुग में कर्म और धर्म को फिर से परिभाषित करें

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
स्टोरी 1: पेशे से टेलर उनके पिताजी के लिए सात बच्चों की परवरिश में बहुत कठिन थी। वे तीन साल के भी नहीं हुए थे कि उसे पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के तालडंगा स्थित नाना के घर भेज दिया, जो बोकारो
स्टील प्लांट में काम करते थे। उनके माता-पिता ने सोचा कि कम से कम वह स्कूल तो जाएगा। लेकिन, लड़का नए घर में बार-बार होने वाली पिटाई से तंग आ गया। शायद इसलिए कि उसने कुछ फिल्में देख ली थीं! 1999 की एक रात उसने कुछ नकदी चुराई और नई दिल्ली की ट्रेन में सवार हो गया, क्योंकि उसे लगा कि उन दिनों के बॉलीवुड हीरो की तरह बड़े शहर में जाने से उनकी तरह उसकी भी ज़िंदगी बदल जाएगी। 
लेकिन, यह आसान शुरुआत नहीं थी। उसने अगले छह माह तो स्टेशन पर कचरा बीनने वालों के साथ बिताए। एक बार तो पैंट्री कार से बचा हुआ भोजन भी चुरा लिया। स्थानीय बदमाश और पुलिस वाले उन लड़कों की नियमित रूप से पिटाई करते। आपसी लड़ाई-झगड़ा भी आम था और वे बच्चे छोटी-सी बात पर भी चाकू निकाल लेते। चूंकि स्टेशन पर खतरे ही खतरे थे तो कुछ माह बाद वह अजेमर गेट ढाबे पर बर्तन मांजने लगा। 
2000 में एक सामाजिक कार्यकर्ता की निगाह उस पर पड़ी और वह उसे 'सलाम बालक ट्रस्ट' ले गया। वहां कुछ साल की पढ़ाई के बाद वह केवल 48 फीसदी अंक ही ला सका और शिक्षकों ने उसे टीवी मैकेनिक का कोर्स करने का सुझाव दिया। लेकिन, उसने फोटोग्राफी चुनी और अपना पहला कैमरा कोडेक केबी 10 खरीदने में कामयाब रहा, जो 500 रुपए से कम का था। जब वह 18 साल का हुआ तो एनजीओ ने उसे पोर्ट्रेट फोटोग्राफर अनय मान के सहायक का जॉब दिला दिया। 
वहां से 29 साल के विकी राय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त डाक्यूमेंटरी फोटोग्राफर बन गए, जिन्होंने इसी सप्ताह कोलकाता में सीआईआई के सम्मेलन में उद्योगपतियों और कॉर्पोरेट जगत के दिग्गजों के सामने अपने कहानी सुनाई। गत दिसंबर में दिल्ली में उनकी नवीनतम प्रदर्शनी आयोजित हुई, जिसमें बताया गया था कि कैसे विकास के विध्वंस ने हिमाचल में अछूते पर्वतों, नदियों और घाटियों को नुकसान पहुंचाया। 
2008 में अमेरिका स्थित मेबैच फाउंडेशन ने विकी का चयन वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के पुनर्निर्माण को डाक्यूमेंट करने के लिए किया। 2014 में उन्हें एमआईटी मीडिया लैब फेलोशिप प्राप्त हुई। विकी डब्ल्यूएचओ और यूनिसेफ के साथ काम करते हैं, व्यावसायिक काम भी करते हैं तथा उन्हें बचाने वाले एनजीओ के लिए पैसा जुटाने में भी मदद करते हैं। 

स्टोरी 2: पटना से 225 किलोमीटर दूर बेतिया के कॉलेज में 2006 से 2009 के बीच फिजिक्स में बीएससी करते वक्त उन्हें मुश्किल से ही विज्ञान का वातावरण मिल पाता। विज्ञान की ललक उन्हें फिजिक्स में एमएससी करने के लिए बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी ले गई। वहां माहिर प्राध्यापकों के संपर्क में आने के बाद उनके शैक्षणिक कॅरिअर को जबर्दस्त बढ़ावा मिला। उनके महत्वाकांक्षी कार्यक्रम 'अर्न व्हाइल यू लर्न' ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों की ज़िंदगी को बदलने के उनके सपने को बल दिया। 
मिलिए बीएचयू के 29 वर्षीय सीनियर रिसर्च फेलो सुनील कुमार से, जिन्होंने 68 छात्रों को वाराणसी में बुनियादी विज्ञान के तरफ आकर्षित कर उनकी ज़िंदगी बदल दी, जो गरीब व वंचित परिवारों के थे। उनका दावा है कि यह उनकी तरफ से देश में शिक्षा के व्यावसायीकरण और औद्योिगकीकरण के खिलाफ संघर्ष प्रेरित करने की पहल है। साथ ही बुनियादी विज्ञान के क्षेत्र में उचित मार्गदर्शन उपलब्ध कराना भी उनका उद्‌देश्य है। सुनील सर -जैसा उन्हें स्थानीय स्तर पर कहा जाता है- के ट्यूटोरियल से 2016 और 2017 में क्रमश: 32 और 36 विद्यार्थियों द्वारा (आईआईटी के एमएससी प्रोग्राम के िलए) प्रवेश परीक्षा और ज्वाइंट एंट्रेंस स्क्रीनिंग टेस्ट (जेस्ट) पास करने की ओर अभी लोगों का ध्यान नहीं गया है। 
फंडा यह है कि  अपने में जुनून पैदा करें, चुने हुए क्षेत्र में खुद को श्रेष्ठतम बनाएं और फिर दूसरे लोगों को उनके सपने पूरे करने में मदद करें। यही कलियुग का कर्म और धर्म है।